हारे हैं अखिलेश, समाजवादी पार्टी नहीं

हारे हैं अखिलेश, समाजवादी पार्टी नहीं

हारे हैं अखिलेश, समाजवादी पार्टी नहीं

पंकज ‘पत्रकार’ यादव

नई दिल्ली , मार्च 11 (दिल्ली क्राउन): “अखिलेश” शब्द के पर्यायवाची होते हैं परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्मांड का स्वामी। समाजवादी पार्टी के अखिलेश भी अपने आप को कुछ ऐसा ही समझ बैठे थे। 2022 के चुनावों में अपने आप को इतना बड़ा ज्ञानी समझ लिया कि पार्टी के कामकाज किसी और नेता को सौंपे ही नहीं। सब कुछ अपने कब्जे में रखा।

ना कोई संसदीय बोर्ड, ना कोई स्क्रीनिंग कमेटी, ना जिला स्तर पर कोई संगठन, मंडल और गांव की तो बात ही छोड़िये।

एक साल पहले टिकटों के लिए आवेदन-पत्र मंगवाना और उसके बाद लाखों आवेदन-पत्रों में से एक को भी खोल कर ना देखना, इस बात को दर्शाता है कि अखिलेश चुनाव को लेकर कितने गंभीर थे।

पूरे चुनाव में ऐसा लगा कि समाजवादी पार्टी में सिर्फ एक ही नेता है, एक ही चेहरा,और सारे फैसले लेने वाला एक ही केंद्र है। बाहर वालों को छोडो,अपने घर में ही मौजूद पूर्व सांसद, पूर्व मंत्री, पूर्व विधायक, पूर्व चेयरमैन, पूर्व जिला पंचायत अध्यक्षों में से एक को भी किसी जिम्मेदारी के काबिल नहीं समझा अखिलेश ने।

पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मुलायम परिवार के धर्मेंद्र यादव, अक्षय यादव, तेज प्रताप, चचा शिवपाल कहीं दिखाई ही नहीं दिए। दिखाई दिए तो सिर्फ और सिर्फ अखिलेश। शायद अखिलेश ये मान बैठे थे कि उनका मुख्यमंत्री बनना तो निश्चित है ही, इसका श्रेय उनके अलावा किसी और को क्यों दिया जाए !

लखनऊ स्थित समाजवादी पार्टी के कार्यालय को करीब से देखने वाले लोग बताते हैं कि वहां “कार्यालय” जैसा कुछ है ही नहीं। अगर अखिलेश कार्यालय में मौजूद हैं तो मुख्य-द्वार को बन्द कर दिया जाता है और अंदर जाने की इज़ाज़त किसी को नहीं होती। बस गिने-चुने लोग ही अंदर प्रवेश पा सकते हैं।

और,अगर अखिलेश कार्यालय में नहीं हैं तो वहां पार्टी कार्यकर्ताओं को पूछने वाला कोई नहीं। बस अंदर घूम फिर कर बाहर चले आओ।

वहीँ दूसरी तरफ, भाजपा में प्रत्यक्ष रूप से एक शक्तिशाली संगठन दिखाई पड़ता है। चाहे लखनऊ हो या कोई जिला, सारे कार्यालय सुचारु रूप से चलते हुए नज़र आते हैं। हर स्तर पर लोगों को उनकी काबलियत के हिसाब से काम सौंपे जाते हैं। अगर किसी कार्यकर्ता की कोई शिकायत या मुश्किल सामने आती है तो तुरंत प्रभाव से मंडल या जिला स्तर पर ही उसका निवारण किया जाता है।

लेकिन समाजवादी पार्टी तो सिर्फ लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में ही सिमट कर रह गयी। उसके अलावा जिला या मंडल स्तर पर कोई कार्यकारिणी थी ही नहीं। पार्टी के नाम पर सिर्फ और सिर्फ अखिलेश, उसके बाद कोई कुछ नहीं।

हमने मुलायम सिंह को अक्सर कहते हुए सुना कि “मैं 24 घंटे वाला नेता हूँ। मुझसे मेरी पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता किसी भी वक़्त मिल सकता है।” लेकिन उनके सुपुत्र अखिलेश का हिसाब-किताब एक दम उल्ट है। सामान्य कार्यकर्ता तो छोडो, कोई सांसद, विधायक, पूर्व सांसद, पूर्व विधायक, पूर्व मंत्री भी उनसे आसानी से नहीं मिल सकता। उनको कार्यालय में घंटो ऐसे बैठा कर रखा जाता है कि मानो उनको उनकी औकात बतानी हो, और यह जताना हो कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष, यानी “महाराज”, से मिल पाना इतना आसान नहीं।

और, अगर गलती से अध्यक्ष जी मिल भी लिए तो ज्यादा से ज्यादा 1 या 2 मिनट का समय देते हैं , उस से ज्यादा नहीं। उन 1 या 2 मिनटों में भी अध्यक्ष जी खुद ज्यादा बोलते हैं, और मिलने आया व्यक्ति अपनी बात पूरी तरह से कह पाए उस से पहले उसका मिलने का समय ख़त्म हो जाता है।

पिछले छह महीनों से मुलायम सिंह के जमाने के वरिष्ठ नेता विक्रमादित्य मार्ग स्थित कार्यालय में हफ्तों-हफ़्तों तक दिन भर बैठ कर अपने घर ही लौट गए, लेकिन अध्यक्ष जी के दर्शन नहीं हुए।

“अड़ियल और अक्खड़” दिमाग की छवि रखने वाले अखिलेश इस लिए भी मशहूर हैं कि वो किसी को अपने सामने बोलने नहीं देते। “मुझे सब पता है। चलो अब, बाद में मिलना,” कह कर कर्मठ कार्यकर्ताओं का मनोबल लगातार तोड़ने वाले अखिलेश शायद अपने पिता से यह नहीं सीख पाए कि सारा-सारा दिन कार्यालय में बैठ कर लोगों की बातें ध्यान-पूर्वक कैसे सुनते हैं।

पुराने समाजवादी बताते हैं कि पार्टी कार्यालय में मुलाक़ात करवाने वाले लोग, जिनमे एक गजेंद्र भी शामिल है, इतने शातिर हैं कि अखिलेश से बिना मुलाक़ात करवाए ही लिस्ट में टिक मार्क लगाकर कार्यालय से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं।

समाजवादी पार्टी के लिए ही नहीं, अपितु अखिलेश के लिए 2022 का यह चुनाव एक स्वर्णिम अवसर था, अपने आप को देश की राजनीति में स्थापित करने का। मगर मौका खो दिया, और प्लेट पर सजा कर मुख्यमंत्री का मुकुट योगी आदित्यनाथ को थमा दिया।

नौजवाओं की इतनी बड़ी फ़ौज खड़ी थी इस उम्मीद में कि उनका इंतजार अब ख़त्म हुआ, अब उनकी सरकार बनेगी। एक आस बनी थी।  दिलों में एक जोत जली थी। पूरे प्रदेश में चारों तरफ समाजवादी पार्टी पर मर-मिटने वाले लोग मौजूद थे, लेकिन अखिलेश की आँखों पर उनके इर्द-गिर्द रहने वाले 4-5 चमचों ने शायद ऐसी पट्टी बाँध रखी थी कि वे उनको देख और पहचान नहीं पाए।

कौन नहीं जानता शालिनी यादव का नाम जो 2019 में वाराणसी से प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव लड़ीं, 2 लाख वोट पायीं, और पूरे देश में एक चर्चित चेहरा बन गयीं थीं। बीते 2 सालों में अखिलेश को एक दिन भी यह अहसास नहीं हुआ कि शालिनी यादव का पार्टी में कैसे उपयोग किया जाए ?

किस को याद नहीं की झांसी के रहने वाले JNU के दिलीप यादव और पल्लवी की शादी में अखिलेश 2 घंटे बिता कर आये थे। पिछले 3 सालों में उन दोनों में से एक का भी पार्टी में उपयोग नहीं किया गया, आखिर क्यों ? क्या सिर्फ इस लिए कि जो 4-5 शक्श अखिलेश को सारा दिन घेरे रहते हैं, उन्ही की बातों सुनते और मानते रहे ?

भाजपा जैसी विशालकाय पार्टी, जिसका संगठन ऊपर से नीचे तक पूरी तरह से गढ़ा हुआ हो, सामने हो और उसको टक्कर देने के लिए समाजवादी पार्टी के पास संगठन के नाम पर एक सुई भी न हो, तो ऐसा परिणाम आना स्वाभाविक था।

अगर हारे हैं तो अखिलेश। ना तो समाजवादी पार्टी, और ना ही पार्टी के कार्यकर्ता। जय समाजवाद।

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